Sunday 12 May 2013

फेसबुक और ट्विटर पर हुआ पाक चुनाव


मिश्र का तहरीर चौक हो या गद्दाफी के खिलाफ जनआक्रोश, अन्ना की क्रांति हो या फिर पाकिस्तान सरकार को थर्राने वाले मौलवी ताहीर-उल-कादरी का आंदोलन, इन सब में एक बात जो सामान्य है वो यह है कि इन सभी गतिविधियों को गति देने का काम किया सोशल मीडिया ने जी हां वही सोशल मीडिया जिसे हम फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग आदि नामों से जानते हैं। लेकिन इस बार ट्विटर और फेसबुक पाकिस्तान में हुए चुनाव के लिए प्रचार मंच भी बना जहां से अलग-अलग राजनीतिक दलों ने वोटरों को रिझाने के लिए फेसबुक पर स्टेटस और ट्विटर पर कई ट्वीट किए। चुनाव प्रचार में सोशल मीडिया का यह जुनून सर चढ़कर ऐसा बोला कि प्रचार का यह सिलसिला मतदान के दिन भी जारी रहा। पूर्व क्रिकेटर इमरान ख़ान की पाकिस्तान तहरीके-इंसाफ़ ट्विटर और फ़ेसबुक पर सबसे अधिक सक्रिय नज़र आई। इतना ही नहीं पार्टी ने वोटरों के वीडियो और तस्वीरों को सोशल मीडिया पर शेयर भी किया है। पार्टी के एक ट्विट में कहा गया: "हज़ार मुसीबतें सही, लाखों परेशानियां सही मगर ले लो आज अपनी तक़दीर अपने हाथ में." इस बीच नवाज़ शरीफ़ के पाकिस्तान मुस्लिम लीग के 'आधिकारिक' फ़ेसबुक पेज पर एक संदेश कुछ यूं आया: "मेरे दोस्त ये निर्णायक क्षण है... मुल्क की क़िस्मत आज आपके हाथ में है.. !! मेरे शेरों (शेर पीएमएल (एन) का चुनाव निशान है) अपने घरों से बाहर आओ और पीएमएल (एन) को वोट करें ... पाकिस्तान को अपना मत दें! एसएस."
इससे एक बात तो साफ होती है कि भले ही पाकिस्तान में सोशल मीडिया को लेकर कितनी भी आलोचनाएं हो लेकिन उन सभी आलोचनाओं के बीच फेसबुक और ट्विटर के माध्यम से सोशल मीडिया ने अपनी महत्ता को कम नहीं होने दिया है जिसका असर शायद पाकिस्तान चुनावों के परिणामों पर भी दिखाई दे रहा है।




Thursday 9 May 2013

आधुनिक समाज के अनाधुनिक संस्कार

कहते हैं समाज वो आईना है जिसमें संस्कृति की झलक दिखाई देती है यानि की किसी भी देश या जगह की संस्कृति को आपको देखना हो या फिर उसके बारे में जानना हो तो बस जरूरत है उस समाज में कुछ देर जीने की....  दरअसल इस दौर में ज्यूं-ज्यूं हमारा समाज आधुनिक होता गया... वैसै-वैसे उसके संस्कार अनाधुनिक होते चले गए या यूं कहें कि सफलता की दौड़ में समाज तो आगे निकल गया लेकिन संस्कार वहीं के वहीं खड़े रहे... अब यहां पर एक अहम सवाल खड़ा होता है कि आखिर समाज और संस्कार किसके हाथों में है और इन्हें आगे बढ़ाने का दायित्तव किसका है.... इन सब सवालों के जवाब तलाशने के लिए हमें अतीत के धरातल पर उतरकर वर्तमान की ओर बढ़ना होगा... दरअसल किसी भी समाज और वहां के संस्कारों की जननी होती है संस्कृति और इस संस्कृति की वाहक होती है भाषा जो इन्हें (समाज और संस्कार) एक वैश्विक पहचान दिलाती है... खैर मुद्दे  पर आते हैं.... संस्कार का आधुनिक समाज से पिछड़ जाने के पीछे उन मूल्यों का ह्रास है जो विकास की अंधी दौड़ में अपना दम तोड़ देते हैं.... जिस संस्कृति के बीज से संस्कार की एक फलती फूलती बेल निकलती है ... उसे समाज के वो मूल्य एक झटके में काट देते हैं, जो येन-केन-प्रकारेण किसी भी तरह से विकास और आधुनिकता को हासिल करना चाहते हैं.... समाज में नैतिक्ता को ताक पर रखकर हर काम किया जा रहा है... बचपन में खरगोश और कछुए की वो कहानी तो आपने खूब सुनी होगी जिसमें इन दोनों के बीच में दौड़ की एक प्रतिस्पर्धा होती है और खरगोश अपने आलस्य के चलते हार जाता है... लेकिन समाज और संस्कार की इस दौड़ में समाज थोड़ा चालाक निकला इसने पहले खुद ही संस्कार को पंगु बनाया और आखिर में जीत को अपने नाम पर दर्ज कर लिया.... ऐसे में आप खुद ही बताई कि आधुनिक समाज में संस्कार कैसे आधुनिक हो सकते हैं?

Thursday 2 May 2013

ताकि और सरबजीत न मारे जाएं...


                                                                           23 साल सलाखों के पीछे रहने वाले सरबजीत भले ही अब हमारे बीच न हों लेकिन सरबजीत की मौत ने हमें यह चेतावनी जरूर दे दी है कि पाक अपने नापाक मंसूबों को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। पहले उनपर झूठा मुकदमा दर्ज करना, फिर भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी अदालत द्वारा उन्हें फांसी की सजा दे देना और आखिर में उन्हें 23 साल तक मानसिक और शारीरिक तौर पर प्रताड़ित करना, इतना प्रताड़ित करना कि उनकी जान ही चली जाए। भारत के खिलाफ आतंकवादी मुहीम को गाहे-बगाहे हवा देने वाले पाकिस्तान ने सरबजीत की साजिश के तहत हत्या करवा कर यह साबित कर दिया है कि वो सुधरने वाला नहीं है। फिर चाहे भारत कितने भी मधुर संबंध या फिर बातचीत के दरवाज़े खोलता रहे। इसके अलावा सरबजीत की हत्या से पाक की सियासत के भीतर छिपी एक और कमज़ोर कलई खुलती नज़र आ रही है औऱ वो है आईएसआई (ISI), जी हां इस बात के कयास लगाए जा रहे हैं कि सरबजीत की हत्या के पीछे आईएसआई का हाथ है जो कि पाकिस्तान की खूफिया ऐजेंसी है। कहा जा रहा है कि आईएसआई के निर्देशों पर ही सरबजीत पर हमला कराया गया। यह दलील इसलिए भी पुख्ता नज़र आती है क्योंकि पाक में आईएसआई की भूमिका हमेशा संदिग्ध रही है फिर चाहे वो हाफिज़ सईद वाला प्रकरण हो या फिर मुम्बई में हुआ 26/11 । आईएसआई, आतंकवादी संगठनों और सेना की मिलीभगत के किस्से अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी चर्चित रहे हैं। यह बात भी लगातार सामने आती रही है कि इस गठजोड़ का हस्तक्षेप सीधे-सीधे वहां की हुकूमत तक है। खैर मुद्दा यह नहीं है कि पाक की सियासत की दशा दिशा क्या है बल्कि यह है कि सरबजीत की हत्या के बाद पाक की सलाखों के पीछे जितने भी भारतीय कैदी हैं उनकी सुरक्षा को लेकर पाक प्रशासन और वहां कि आबोहवा से विश्वास उठने लगा है। जिस लाहौर की कोट लखपत जेल में सरबजीत को लंबे अर्से तक प्रताड़ित किया गया और आखिर में उनकी जान ले ली, उसी जेल में भारत के दो और कैदी हैं जिनकी जान को लेकर भी खतरा बताया जा रहा है। इनमें पच्चीस-पच्चीस साल की सजा भुगत रहे गुजरात निवासी कुलदीप कुमार और जम्मू कश्मीर निवासी कुलदीप सिंह हैं। अब डर यह है कि कहीं पाकिस्तान की तरफ से किसी और कैदी के भी इस तरह की निर्मम हत्या की ख़बर न आ जाए। इसलिए भारत सरकार को चाहिए की सरबजीत के मुद्दे को आधार बनाकर वो पाकिस्तान में लंबे अर्से से कैद अन्य कैदियों की सुरक्षा का पुख्ता इंतजामात कराने के लिए पाकिस्तान पर दबाव बनाए और एक ईमानदार पहल करते हुए उन्हें वहां से रिहा कर भारत लाने की भी कोशिश करे।

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रिश्ते...



रिश्तों के कुओं की वो गहराईयां...... जिनमें भावनाओं का पानी अब सूख चुका है.. संवेदनाओं का खोखलापन गूंज रहा है.... प्यार के मजबूत पत्थरों पर अब अंवाछित अभिलाषाओं की काई जम रही है... संबंधों की विश्रंभ (भरोसे) डोर कमज़ोर पड़ने लगी है... भागते-हांफ्ते रिश्तों की हर पल बदल रही है परिभाषा.. आखिर क्यों रिश्तों के कदम अब लड़खड़ाने लगे हैं....?

Saturday 20 April 2013

मासूमियत का 'कत्ल'



मामा समझकर मैनें उनका हाथ थामा.. गोद में बैठी.. कंधो पर बैठकर बाज़ार की रौनक देखी... खेल-खिलौने देखे.. रंग-बिरंगे गुब्बारे भी देखे... मामा की उंगलियों का वो स्पर्श कुछ जाना पहचाना सा था.... शायद यह एहसास वैसा  ही था जो पापा की उंगलियों को पकड़कर मिलता था... शाम को दरवाज़े पर होती दस्तक को मैं पहचान लेती थी... क्योंकि उस दरवाज़े के पीछे मामा खड़े होते थे और वो दस्तक चॉकलेट की होती थी.... जो वो हर शाम दफ्तर से लौटकर मेरे लिए लाया करते थे... मामा का प्यार देखकर मुझे लगा कि हमारा रिश्ता बाप-बेटी के रिश्ते जैसा हो गया है.... लेकिन मैं 5 साल की मासूम यह भूल गई थी कि भला मुझे रिश्तों की कहां समझ होगी... रिश्ते समझने की उस उधेड़बुन में.... मैं अंधकार की तरफ खिंची जा रही थी... इस अंधकार में कोई था.. जो मेरी अस्मत मुझसे छीन रहा था..  मैं रोई, चिल्लाई... मैनें मामा को आवाज़ दी.. उन्हें पुकारा... लेकिन वो नहीं आए... संघर्ष करती, जूझती... लड़ाई करती हुई आखिर मैं अंधकार के उस छोर तक पहुंच गई.. जहां प्रकाश का एक बिंब अंकुरित हो रहा था... मैनें आंखों को मीचा... कोशिश करते हुए मैनें अपनी बंद होती आंखों को धीरे-धीरे खोला... और जो देखा उसे देखकर मैं दंग रह गई.... मेरे सामने कोई खड़ा था... लंगडाता, हांफ्ता लेकिन खामोश... ये वो रिश्ता था जिसे मैनें बाप-बेटी का रिश्ता समझा था... सच्चाई की रौशनी से जब इस रिश्ते पर चढ़ी नासमझी और दिखावे की धूल साफ हुई तो मैं स्तब्ध हो गई... हैरान हो गई.... मैनें देखा मेरी मासूमियत का कत्ल कर दिया गया है... अब मैं नासमझ यह समझने लगी थी कि जिन उंगलियों को पकड़कर मैं बाज़ार जाया करती थी.... जिनकी बाज़ुओं में चॉकलेट खाया करती थी... और जिनके हाथ के स्पर्श को मैनें पापा के हाथों का स्पर्श समझा... उन्हीं हाथों ने मेरी अस्मत को लूट लिया... मेरी मासूमियत का कत्ल कर दिया...!!

Monday 8 April 2013

अनशन का मर्म?









भारत... जिसे कई शासकों ने अपना गुलाम बनाया... कभी मुस्लमान तो कभी अंग्रेजी हुकूमत ने यहां के लोगों के साथ अन्याय किया...... उनका शोषण किया... लेकिन इस दौर में अन्याय और शोषण से लड़ने के लिए हथियार बनकर उभरा अनशन..... जब गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की.... लाखों की संख्या में लोग इस आंदोलन का हिस्सा बने... और लोगों के इसी हुज़ूम ने पराधीनता के ताबूत में आखिरी कील गाढ़ने का काम किया... तारीख 10 फ़रवरी, 1943... अंग्रेजी हुकूमत के भारतीयों की मांग की ओर ध्यान न देने पर गांधी ने 21 दिन का उपवास शुरू कर दिया.... उपवास ने इस आंदोलन की आग में घी डालने का काम किया.... और एकाएक इस आंदोलन की आग की लपटें इतनी तेज हो गईं कि इसके ताप से अंग्रेजी सियास्तदानों की कुर्सियां तक तपने लगीं... बहरहाल उपवास को 13 दिन हो गए थे.... गांधीजी की हालत बेहद खराब होने लगी लेकिन अंग्रेजों ने इनकी तरफ बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया... इतिहासकार मानते हैं कि अंग्रेज खुद चाहते थे कि गांधीजी मर जाएं.....  खैर इस आंदोलन से मुल्क को आजादी तो नहीं मिल पाई... लेकिन हां गांधी ने यह जरूर साबित कर दिया कि अहिंसा के मार्ग पर चलकर अगर उपवास या अनशन को विरोध के तरीके के तौर पर इस्तेमाल में लाया जाए.... तो जीत निश्चित ही हमारी होगी....




दरअसल गांधी से लेकर इस दौर में अन्ना के आंदोलन को अगर देखें तो इनमें एक बात समान दिखाई देती है .... इन दोनों ने आंदोलन को खड़ा करने और उसमें जन भागीदारी को बढ़ाने के लिए अनशन का सहारा लिया.... या यूं कहें कि इनके आंदोलन की कामयाबी या फिर इसके प्रभाव के पीछे अनशन की शक्ति थी ..... लेकिन अगर सिर्फ गांधी और अन्ना की बात करें तो इनके आंदोलन सामाजिक मुद्दों को केंद्र में रखकर लड़े गए थे... मसलन गांधी ने देश को आजाद कराने के लिए अंग्रेजों से लोहा लिया तो वहीं दूसरी तरफ अन्ना ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोगों को एकजुट किया... इस तरह से देखा जाए तो अन्ना और गांधी के अनशन का आधार राष्ट्रीय था... लेकिन इसके इतर आजादी के बाद कई ऐसे अनशन हुए हैं जिनका राष्ट्रीय स्तर से अलग एक क्षेत्रीय आधार था..




पराधीनता के लंबे अंधकार के बाद जब भारतीय नेताओं ने आजादी का पहला सूरज देखा तो उन्हें कई चुनौतियां और समस्याएं मुंह बाए खड़ी दिखाई दीं... कहीं गरीबी थी तो कहीं बेरोजगारी... कहीं धार्मिक सौहार्द बनाए रखना था तो कहीं राज्यों का पुनर्गठन करना.... सरकार ने कई कोशिशें की... समस्याओं को कुछ हद तक दूर तो कर दिया लेकिन कुछ लोगों को शायद सरकार के फैसले रास नहीं आये और इन्हीं लोगों में से एक थे आंध्र प्रदेश के पोटि श्रीरामुलु.... श्री रामुलु महात्मा गांधी के परम भक्त थे... गांधी के मार्ग पर चलते हुए उन्होनें जीवनभर  सत्य, अहिंसा, देशभक्ति और हरिजन उत्थान के लिये काम किया..... 1952 में भाषा के आधार पर मद्रास प्रेजिडेंसी से आंध्र प्रदेश के अलग होने के मुद्दे पर श्रीरामुलु अनशन पर बैठ गए... 82 दिन तक लगातार बिना खाए वो अनशन पर बैठे रहे लेकिन आखिरकार अनशन के 82वें दिन श्रीरामुलु की मौत हो गई.... श्रीरामुलु की मौत का जिम्मेदार कौन है? यह सवाल अनशन के संदर्भ में बेईमानी लगता है.... बेईमानी इसलिए.... क्योंकि अनशन का मतलब है खुद से अन्न त्यागना न कि किसी के मजबूर करने पर..... अब ऐसे में एक और सवाल खड़ा होता है कि क्या फिर इसे खुदखुशी कहा जाए.... नहीं इसे खुदखुशी नहीं कहा जा सकता क्योंकि खुद की खुशी से नहीं बल्कि किसी मांग के तहत किया गया त्याग है इसलिए इसे त्याग या बलिदान कहा जा सकता है..... बहरहाल श्रीरामुलु का यह बलिदान व्यर्थ नहीं गया.... इनके त्याग का ही यह परिणाम था कि समूचे भारत में भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया....


आजादी के बाद देश में कई मुद्दों को लेकर गहमागहमी बनी हुई थी.... खासकर राज्यों के गठन को लेकर..... आंध्रप्रदेश के अलग राज्य बनने के बाद.... कई और राज्यों के अलग होने की मांग भी तेज़ हो गई....1967 में मास्टर तारा सिंह ने पंजाब सूबा बनाने के लिए 48 दिन तक अनशन किया.... अनशन का तरीका ठीक वैसा ही था जैसा श्रीरामुलु ने का था.... आखिरी दिन तारा सिंह की मौत हो गई थी... तारा सिंह की मौत के बाद पंजाब को 3 अलग भागों में बांट दिया गया.... इसके अलावा भी अलग राज्य के निर्माण को लेकर अनशन हुए.... जिन्होनें राजनीतिक गलियारों में हलचल पैदा कर दी.... और इन्हीं में से एक था अलग तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर अनशन.... तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर सांसद के चेन्द्रशेखर राव ने 2009 में ग्यारह दिनों तक अनशन किया.... इसके अलावा भी कई ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें लेकर अनशन किया गया.... जहां 1974 में छात्र आंदोलन के बाद मोरारजी देसाई ने गुजरात विधानसभा भंग करने और उपचुनाव कराने की मांग को लेकर अनशन शुरू किया... उनके अनशन के दबाव में सरकार झुकी और उनकी मांगे मान ली गई.... तो वहीं पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने 2006 में 25 दिनों तक अनशन किया... दरअसल दीदी का यह अनशन सिंगूर के किसानों की ली गई ज़मीन वापिस कराने की मांग के लिए किया गया था.... नर्मादा बचाओ आंदोलन से जुड़ी समाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटेकर बीस दिनों तक अनशन पर बैठी रही....  मणिपुर की इरोम चानू शर्मिला तो पिछले ग्यारह सालों से अनशन कर रही है...इरोम शर्मिला उत्तर पूर्व भारत से आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर ऐक्ट, 1958 को हटाने की मांग कर रही हैं...इसी तरह स्वामी निगमानंद ने राष्ट्रीय नदी गंगा में खनन रोकने के लिए 19 फरवरी 2011 से अनशन शुरू किया,,,लेकिन सरकार ने उनकी मांगों को तवज्जो नहीं दी... अनशन के 68वें दिन निगमानंद कोमा में चले गए और 12 जून 2011 की देर रात निगमानंद की मौत हो गई.....अब बात अन्ना की....गांधीवादी समाजसेवी अन्ना और अनशन का रिश्ता काफी पुराना रहा है....अब तक पंद्रह बार अनशन कर चुके अन्ना जनलोकपाल बिल की मांग को लेकर इसी साल पांच अप्रैल को दिल्ली के जंतर मंतर पर अनशन पर बैठे....97 घंटे बाद 9 अप्रैल, 2011 को सरकार ने लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए जॉइंट ड्राफ्ट कमिटी बनाने की घोषणा की जिसके बाद ही अन्ना ने अनशन तोड़ा। इसके बाद दिल्ली में बाबा रामदेव के आंदोलन के दौरान पुलिस कार्रवाई के विरोध में 8 जून को अन्ना ने राजघाट पर एक दिन का उपवास रखा। इसके पहले भी अन्ना महाराष्ट्र में करप्शन और आरटीआई के सवाल पर 2003 और 2006 में अनशन कर चुके हैं...उसके बाद बाबा रामदेव ने काले धन के मुद्दे पर 9 दिनों तक अनशन किया। तबियत खराब होने के बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया....सरकार ने उनकी मांगें नहीं मानी.....अन्त में उन्हें खुद अपना अनशन तोड़ना पड़ा....
तो यह थे कुछ ऐसे अनशन जो कई अलग-अलग मुद्दों पर किए गए थे... कुछ सफलता की चोटी पर पहुंचे तो कुछ असफलता की गहरी खाई में.... लेकिन इन सब के बीच एक सवाल अभी भी खड़ा होता है कि क्या अनशन करना विरोध का सार्थक तरीका है....?

भारत में अनशनों की फेहरिस्त बहुत लंबी है .... गांधी ने अनशन को सामाजिक और राजनीतिक रूप दिया.... लेकिन कभी भी उसे ब्लैकमेलिंग का लिबाज़ नहीं पहनाया ... और शायद तभी गांधी के लिए अनशन की परिभाषा अनशन नहीं बल्कि उपवास थी..... और इनका यह उपवास होता तो सामाजिक था लेकिन उसकी तपिश सत्ता तक पहुंचती थी... दरअसल यहीं से शुरू होती है अनशन की वो परंपरा जिसमें अपने हित और अपनी मांगों को अहिंसात्मक रास्ते पर चलकर उठाया जाता है.... गांधी के लिए उपवास का मतलब सिर्फ लोगों को इकट्ठा करना या फिर सत्ता पर जन दबाव ही बनाना नहीं था बल्कि यह तो वो रास्ता था जो उन्हें स्वयं को परिष्कृत करता था या यूं कहें कि यह एक आत्ममंथन की एक प्रक्रिया थी जो भारतीय संस्कारों में पहले से ही मौजूद रही है... और गांधी ने भी उसे वहीं से लिया लेकिन उसके अर्थ को थोड़ा व्यापक कर दिया... शायद समय की यह मांग भी थी... और इस विरासत के बीज को गांधी ने सभी हिंदुस्तानियों के दिलों में बो दियाजिसका यह परिणाम है कि आज के इस आधुनिक और तकनीकी युग में भी लोग अनशन को एक बेहतर हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं... और इन्हें जनसमर्थन भी मिल रहा है.... अन्ना हज़ारे का आंदोलन इस बात की मिसाल रहा है....

Tuesday 2 April 2013

परिवर्तन और नज़रिया



कहते हैं परिवर्तन संसार का नियम होता है। इसलिए परिवर्तन को सार्वभौमिक सच मानने में कोई दो राय नहीं हो सकती। दरअसल परिवर्तन को समझने के लिए हमें उस स्तर पर जाना पड़ेगा जहां उसकी नींव पड़ी थी। किसी भी मूल वस्तु का जब ढ़ांचा बदलने लगता है या कहें कि उसके भीतर जो सुगबुगाहट दिखाई देती है वहीं से परिवर्तन की शुरुआत होती है। सुगबुगाहट के पीछे छिपा है काल यानि की समय। समय ही है जो किसी भी तत्व या वस्तु में परिवर्तन की रूपरेखा तय करता है। दरअसल देखा जाए तो जीवन का आधार समय है, और परिवर्तन का आधार भी। इसलिए एक अंकगणितीय फॉर्मुले की तरह (जीवन=समय=परिवर्तन) यहां भी यह स्पष्ट होता है कि समय, परिवर्तन और जीवन तीनों ही एक दूसरे के पर्याय हैं। जीवन का एक अहम हिस्सा माना जाता है समाज और इसी समाज से जुड़े होते हैं कई तत्व मसलन् राजनीति, धर्म, खेल, मनोरंजन, अपराध, शिक्षा, विज्ञान आदि। इतिहास गवाह है इस बात का कि जब-जब वक्त ने करवट बदली है, तब-तब समाज के ढांचे में परिवर्तन हुआ है और यह परिवर्तन समाज के उपरोक्त तत्वों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। अब अगर इन उपरोक्त समीकरणों पर विहंगम दृष्टि डाली जाए तो परिवर्तन को लेकर हमारा नज़रिया सकारात्मक दिखाई देता है। सकारात्मक होने के पीछे का एक अहम पहला कारण इसके  सार्वभौमिक सच रूपी होने का है और दूसरा समय की उस शक्ति का है जो परिवर्तन की रूपरेखा तैयार करता है। इन सबसे अलग अगर देखा जाए तो परिवर्तन में परिष्कार की एक भावना होती है जो संसार की किसी भी चीज़ को उसके मूल रूप से अलग आकार देती है और यह निरंतरता समय के अनुरूप आगे बढ़ती जाती है और यह आगे भी बढ़ती जाएगी इसमें कोई दो राय नहीं है।