कहते हैं ईमांदारी का कोई मजहब नहीं होता.... वो तो हमारे संस्कारों में होती
है..... संस्कारों में इमांदारी को पिरोने वाला एक शख्स और था जिसका नाम था जिया
उल हक... शनिवार 2 मार्च को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के बलीपुर गांव
में ग्राम प्रधान की हत्या के बाद शांति बहाली के लिए गांव पहुंचे डीएसपी
जिया-उल-हक की हत्या कर दी गई.... जिया-उल-हक की हत्या ने ईमानदार लोगों के मनोबल
को तोड़ दिया है... इस पूरी घटना में सबसे हैरानी वाली बात यह है कि पूरी पुलिस
फोर्स में एक ही अधिकारी मारा गया.. वो भी बेहद ईमानदार और कर्मठ... जब जिया उल हक
को भीड़ ने घेरा तब उनके साथी पुलिसवाले उन्हें छोड़कर फरार हो गए थे... इस पूरी
घटना के बाद जिया उल हक देश के लिए ईमानदारी और समर्पण की मिसाल बन गए हैं... बेहद
साधारण परिवार से आए जिया उल हक ने पुलिस
महकमें में ऊंची नौकरी लगने के बाद भी ईमानदारी को ही अपना सबसे बड़ा आभूषण
समझा... इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मुस्लिम हॉस्टल में रहकर नौ साल तक कड़ी मेहनत
करने वाले जिया भाई की यादें उनके साथियों के जेहन में आज भी मौजूद हैं... बेहद
सरल स्वाभाव और हमेशा चेहरे पर मुस्कान लिए रहने वाले ज़िया को भूल पाना उनके लिए
नामुमकिन है... उन्हें याद है कि ज़िया उस दौर में डीएसपी बनने के लिए कड़ी मेहनत
किया करते थे... वह रोजाना 15-16 घंटे पढ़ते थे...
जिसका नतीजा यह हुआ कि तैयारी के दौरान ही उनका चयन पीपीएस में हो गया... उनके
पिता प्राइवेट नौकरी करके उनका और पूरे परिवार का खर्च चलाते थे... जिया के पुलिस
अधिकारी बनते ही ऐसा लगा कि परिवार की मुसीबतें अब खत्म हो जाएंगी, लेकिन होनी को तो कुछ और ही मंजूर था... कुंडा के डीएसपी रहे जिया उल हक बेहद पिछड़े और
गरीब इलाके के रहने वाले थे... उनके पिता मुंबई की किसी फैक्ट्री में मामूली नौकरी
करते थे... दो बेटे और दो बेटियों में जियाउल हक सबसे बड़े थे... उनका सपना था
आईपीएस अफसर बनना... बेटे का सपना पूरा करने के लिए पिता शम्सुल हक ने एड़ी चोटी
का जोर लगा दिया... बीए तक की पढ़ाई जिया उल हक ने देवरिया से की.. उनकी मेहनत देख
पिता ने उन्हें 1998 में तैयारी
करने के लिए इलाहाबाद भेज दिया... परिवार
की आर्थिक हालत अच्छी नहीं थी... लेकिन इससे उनका हौसला कम नहीं हुआ... परिवार का
साथ और जियाउल हक की मेहनत के आगे गरीबी पस्त हो गई... पिता ने ओवरटाइम करके उनकी
पढ़ाई का खर्चा उठाया... इस उम्मीद में कि बेटा बुढ़ापे की लाठी बनेगा.. लेकिन
किस्मत का खेल देखिए कि जिसको वो अपने बुढ़ापे की लाठी बनाना चाहते थे उसकी अर्थी
को उन्होनें अपने कंधो से उठाया.. इस दौरान नौ साल तक होस्टल में रहे.. होस्टल के
उनके साथी बताते हैं कि बेहद सरल स्वाभाव और हमेशा चेहरे पर मुस्कान लिए रहने वाले
ज़िया भाई को भूल पाना नामुमकिन है... वो याद करते हैं कि ज़िया ने डी.एस.पी. बनने
के लिए कड़ी मेहनत की वो 15-16 घंटे रोजाना
पढ़ते थे... तैयारी के दौरान जिया उल हक
का चयन पीपीएस में हो गया... उनकी पहली तैनाती हुई अंबेडकरनगर जिले में... जबकि
दूसरी पोस्टिंग में उन्हें कुंडा का सीओ बनाकर भेजा गया.. यूपी पुलिस में आपको ऐसे
कई कांस्टेबल और सब इंस्पेक्टर मिल जाएंगे जिनके पास दौलत की कोई कमी नहीं है...
लेकिन जहां भ्रष्टाचार का गंदा तालाब हो वहां जिया उल हक ने अपनी ईमांदारी का कमल
खिलाया हुआ हुआ था... दरअसल जिया उल हक
बेहद मामूली घर में रहते थे... तमाम बुराइयां उनसे कोसों दूर थीं.... उनके
करीबियों की मानें तो वो गरीबों और बेबसों की मदद के लिए कुछ भी करने को तैयार
रहते थे.... उनके परिवार वाले बताते हैं कि डीएसपी बनने के काफी दिनों बाद जब वो
हाल ही में एक शादी समारोह में साइकिल चलाते पहुंचे तो लोग दंग रह गए.... जिया उल
हक की ईमानदारी और बहादुरी की ऐसी तमाम कहानियां इस इलाके को लोगों को बखूबी याद
हैं... जिया उल हक की हत्या के बाद यूपी पुलिस ने एक जाबांज और साफ छवि वाला अफसर
खो दिया है... उसकी भरपाई अब कभी नहीं हो सकती... पुलिस महकमा भी इस वाकए से टूट
सा गया है... एक ऐसा महकमा जहां जिया उल हक जैसे अफसर मुश्किल से मिलते हैं...
वहां लोगों को इस बात का भरोसा नहीं हो रहा है कि जिया उल हक को ऐसी मौत मिली..
उनके साथ ट्रेनिंग करने वाले साथी गुस्से में भी है और दुखी भी.. हालांकि व्यवस्था
के खिलाफ गुस्से का ये गुबार पूरे प्रदेश में फैल गया है...
तो देखा आपने कि किस तरह से एक और
ईमांदार शख्स को ईमांदारी की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी... अब ऐसे में कई अहम
सवाल खड़े होते हैं कि आखिर कब तक इस देश को भ्रष्टचारियों, मिलावटखोरों, माफियाओं
और अपराधियों के चंगुल से मुक्त कराने में मंजूनाथ,
सत्येंद्र
दूबे, यशवंत सोनावणे जैसे होनहार राष्ट्रभक्त
देशवासी हमसे इसी प्रकार छीने जाते रहेंगे? आम लोगों के जेहन में यह उठने लगा है कि कहीं
देश का मुट्ठी भर संगठित अपराधी, भ्रष्ट और मिलावटखोर माफिया देश के एक
अरब से ज्यादा की आबादी वाले असंगठित लोगों पर हावी तो नहीं होने जा रहा है? इस प्रकार की घटनाएं आम लोगों को बार-बार यह सोचने पर मजबूर कर देती
हैं कि आजाद देश की परिभाषा आखिर है क्या?
किस
बात की आजादी और कैसी आजादी? क्या ताकतवर माफिया को अपने सभी काले
कारनामे, अपराध,
मिलावटखोरी, भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, कालाबाजारी
और जमाखोरी यहां तक कि दिनदहाड़े हत्या जैसे वारदात करने की पूरी आजादी है? लेकिन एक ईमानदार और होनहार अधिकारी को आज अपना
कर्तव्य निभाने की आजादी हरगिज नहीं? कुछ इन्हीं सुलगते सवालों के साथ ईमांदारी पर
हमारी ये कड़ी यहीं समाप्त होती है..!
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