Saturday 20 April 2013

मासूमियत का 'कत्ल'



मामा समझकर मैनें उनका हाथ थामा.. गोद में बैठी.. कंधो पर बैठकर बाज़ार की रौनक देखी... खेल-खिलौने देखे.. रंग-बिरंगे गुब्बारे भी देखे... मामा की उंगलियों का वो स्पर्श कुछ जाना पहचाना सा था.... शायद यह एहसास वैसा  ही था जो पापा की उंगलियों को पकड़कर मिलता था... शाम को दरवाज़े पर होती दस्तक को मैं पहचान लेती थी... क्योंकि उस दरवाज़े के पीछे मामा खड़े होते थे और वो दस्तक चॉकलेट की होती थी.... जो वो हर शाम दफ्तर से लौटकर मेरे लिए लाया करते थे... मामा का प्यार देखकर मुझे लगा कि हमारा रिश्ता बाप-बेटी के रिश्ते जैसा हो गया है.... लेकिन मैं 5 साल की मासूम यह भूल गई थी कि भला मुझे रिश्तों की कहां समझ होगी... रिश्ते समझने की उस उधेड़बुन में.... मैं अंधकार की तरफ खिंची जा रही थी... इस अंधकार में कोई था.. जो मेरी अस्मत मुझसे छीन रहा था..  मैं रोई, चिल्लाई... मैनें मामा को आवाज़ दी.. उन्हें पुकारा... लेकिन वो नहीं आए... संघर्ष करती, जूझती... लड़ाई करती हुई आखिर मैं अंधकार के उस छोर तक पहुंच गई.. जहां प्रकाश का एक बिंब अंकुरित हो रहा था... मैनें आंखों को मीचा... कोशिश करते हुए मैनें अपनी बंद होती आंखों को धीरे-धीरे खोला... और जो देखा उसे देखकर मैं दंग रह गई.... मेरे सामने कोई खड़ा था... लंगडाता, हांफ्ता लेकिन खामोश... ये वो रिश्ता था जिसे मैनें बाप-बेटी का रिश्ता समझा था... सच्चाई की रौशनी से जब इस रिश्ते पर चढ़ी नासमझी और दिखावे की धूल साफ हुई तो मैं स्तब्ध हो गई... हैरान हो गई.... मैनें देखा मेरी मासूमियत का कत्ल कर दिया गया है... अब मैं नासमझ यह समझने लगी थी कि जिन उंगलियों को पकड़कर मैं बाज़ार जाया करती थी.... जिनकी बाज़ुओं में चॉकलेट खाया करती थी... और जिनके हाथ के स्पर्श को मैनें पापा के हाथों का स्पर्श समझा... उन्हीं हाथों ने मेरी अस्मत को लूट लिया... मेरी मासूमियत का कत्ल कर दिया...!!

1 comment:

  1. baddiya hai... bich ki line kafi emotional hai..

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