साल
2014....
जी हां यही वो साल है जो आने वाले वक्त में देश की दशा और दिशा दोनों
तय करेगा। सियासत की इसी बिसात पर ये तय होगा कि आने वाले समय में सियासत का क्या
रंग होगा। 2012 के
बीतने और 2013 के
शुरु होने के बीच कई ऐसी हलचलें हुईं जो बढ़ती सियासी सरगर्मियों की तरफ इशारा
करती हैं। इसमें कर्नाटक के नाटक से लेकर झारखंड के सियासी संकट और फिर इधर
राष्ट्रीय राजनीति में कुछ पंरपरावादी बने तो कुछ परिवारवादी। राहुल गांधी को
उपाध्यक्ष बनाए जाने और बड़ी विपक्षी पार्टी कहे जाने वाली बीजेपी में गडकरी को
हटाकर राजनाथ को अध्यक्ष पद की कमान संभालना ये बताता है कि मिशन 2014 की
तैयारियों के लिए मुल्क की दोनों बड़ी पार्टियों ने अपनी कमर कसनी शुरु कर दी है।
इसी नूराकुश्ति में कुछ लोग धर्म के आधार पर भी आतंकवाद को बांट रहे हैं। इन सबके
बीच महंगाई और भ्रष्टाचार के बढ़ते आंकड़े चीख-चीख कर ये कह रहे हैं कि हम भी चुनावी मुद्दों
की फेहरिस्त में शुमार हैं।
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