Tuesday 2 April 2013

परिवर्तन और नज़रिया



कहते हैं परिवर्तन संसार का नियम होता है। इसलिए परिवर्तन को सार्वभौमिक सच मानने में कोई दो राय नहीं हो सकती। दरअसल परिवर्तन को समझने के लिए हमें उस स्तर पर जाना पड़ेगा जहां उसकी नींव पड़ी थी। किसी भी मूल वस्तु का जब ढ़ांचा बदलने लगता है या कहें कि उसके भीतर जो सुगबुगाहट दिखाई देती है वहीं से परिवर्तन की शुरुआत होती है। सुगबुगाहट के पीछे छिपा है काल यानि की समय। समय ही है जो किसी भी तत्व या वस्तु में परिवर्तन की रूपरेखा तय करता है। दरअसल देखा जाए तो जीवन का आधार समय है, और परिवर्तन का आधार भी। इसलिए एक अंकगणितीय फॉर्मुले की तरह (जीवन=समय=परिवर्तन) यहां भी यह स्पष्ट होता है कि समय, परिवर्तन और जीवन तीनों ही एक दूसरे के पर्याय हैं। जीवन का एक अहम हिस्सा माना जाता है समाज और इसी समाज से जुड़े होते हैं कई तत्व मसलन् राजनीति, धर्म, खेल, मनोरंजन, अपराध, शिक्षा, विज्ञान आदि। इतिहास गवाह है इस बात का कि जब-जब वक्त ने करवट बदली है, तब-तब समाज के ढांचे में परिवर्तन हुआ है और यह परिवर्तन समाज के उपरोक्त तत्वों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। अब अगर इन उपरोक्त समीकरणों पर विहंगम दृष्टि डाली जाए तो परिवर्तन को लेकर हमारा नज़रिया सकारात्मक दिखाई देता है। सकारात्मक होने के पीछे का एक अहम पहला कारण इसके  सार्वभौमिक सच रूपी होने का है और दूसरा समय की उस शक्ति का है जो परिवर्तन की रूपरेखा तैयार करता है। इन सबसे अलग अगर देखा जाए तो परिवर्तन में परिष्कार की एक भावना होती है जो संसार की किसी भी चीज़ को उसके मूल रूप से अलग आकार देती है और यह निरंतरता समय के अनुरूप आगे बढ़ती जाती है और यह आगे भी बढ़ती जाएगी इसमें कोई दो राय नहीं है।

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