इस देश को आजाद
हुए 66 साल हो चुके हैं। हर साल 15 अगस्त के दिन लाल किले की प्राचीर से
प्रधानमंत्री झंडा फहराते हैं और देश को भाषण देते हैं। झंडा फहराने और भाषण देने
के बीच एक सवाल जो बार-बार सुलगता है वो ये कि क्या हम वाकई आजाद हो गए हैं। दरअसल
ये सवाल कई संदर्भों में उठता है। पिछले कुछ एक सालों में जो कुछ भी हुआ। वो काफी
है ये बताने के लिए कि आजाद देश में भ्रष्टाचार और घोटालों की बेड़ियां लग चुकी
हैं। और जब कभी भी कोई इन बेड़ियों को हटाने की कोशिश करता हैं तो उन्हें मौत के
घाट उतार दिया जाता है।
जी हां....
दरअसल आजाद भारत की राजनीति में जीप घोटाले का जो बीज बोया गया उसे सियासतदानों ने
अपने संरक्षण से ऐसा सींचा, जिससे भ्रष्टाचार का एक विशाल पेड़ खड़ा हो गया है। जिसमें
अब सीडब्लयूजी, 2 जी, कोयला घोटाला, सरीखे कई फल निकल आए हैं और अगर हालात कमोबेश
ऐसे ही रहे तो इनकी संख्या में बढोतरी कोई हैरानी की बात नहीं होगी। लेकिन कहते
हैं जहां अन्याय होता है वहां विरोध के स्वर भी उठने लगते हैं। अन्ना हजारे,
अरविंद केजरीवाल, बाबा रामदेव, ये ऐसे कुछ लोग हैं जिन्हें आप भ्रष्टाचार के खिलाफ
सड़कों पर उतरते हुए देख चुके हैं औऱ जिन्होनें सत्ता की चूल्हें हिलाने में भी
कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। लेकिन इनके अलावा भी कुछ ऐसे लोग थे जिन्होनें भ्रष्टाचार
के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की, लेकिन उनमें औऱ इनमें फर्क बस इतना है कि वो जिंदा
होकर सुर्खियों में आए और ये मरने के बाद। मैं अपनी बात को तिरंगे से शुरु करता
हूं.... वही तिरंगा जो भारत की पहचान है... स्वाभिमान और आजादी का प्रतीक है......
ये बतता है कि अब हमारा मुल्क आजाद है.... लेकिन दरअसल वो भूल रहा है कि जिस आजादी
का जश्न वो मना रहा है.... उसका यथार्थ क्या है... क्या मुल्क वाकई में आजाद हुआ
है..... ये सवाल इसलिए खड़ा होना लाज़मी है कि भारतीय इतिहास में अब तक बहुत कुछ
ऐसा हुआ है जो आजादी की उस धारणा को झूठा साबित करती है जिसे भगत सिंह, महात्मा
गांधी, और अम्बेडकर ने तैयार की थी..... दरअसल किस्सा भ्रष्टाचार का है .... और
भ्रष्टाचार से लड़ने वाले हर एक उस शख्स का है.... जिसे विरोध करने की कीमत चुकानी
पड़ी है..... कहते हैं सत्यमेव जयते यानि की सच की हमेशा जीत होती है.... लेकिन
अपने नाम में ही सत्य जोड़ने वाले.... सत्येंद्र दुबे के साथ जो कुछ हुआ उससे सच
हारता हुआ दिखा.... दरअसल ये दौर था जब स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना का निर्माण
कार्य चल रहा था..... स्वर्णिम चतुर्भुज भारत में सबसे बड़े सड़क जाल के रूप में
सामने आया है... इससे आप ये अंदाजा लगा सकते हैं कि ये कितनी बड़ी परियोजना
है..... लेकिन स्वर्णिम चतुर्भुज की चमक के नीचे भ्रष्टाचार का एक घना अंधेरा पनप
रहा था..... जिसको उजागर किया सत्येंद्र दूबे ने...... भ्रष्टाचार की सुगबुगाहट को
दूबे की ईमांदारी ने महसूस कर लिया था... जिसके चलते ही उसने इस बड़े घोटाले का
पर्दाफाश किया....... तारीख- 27 नवंबर 1973... इसी दिन बिहार के सिवान डिस्ट्रिक्ट के एक छोटे से गांव शाहपुर में बागेश्वरी दूबे
और फूलमति देवी के घर पर एक बच्चे का जन्म हुआ... शायद बचपन में ही मां बाप इसके भीतर
छिपे गुण को पहचान गए थे.... इसलिए उन्होनें इसका नाम रखा ... सत्येंद्र दूबे......
5 बहनों और 2 भाई वाला ये परिवार जमीन के एक छोटे से टुकड़े में रहता था..... पिता
पास ही एक चीनी मिल में कम-आय वाले क्लर्क के पद पर तैनात थे... उनके गांव में
बिजली नहीं थी... लेकिन 6 साल के सत्येंद्र की प्रतिभा ने पूरे गांव में उम्मीद की
लौ जलाई....इस छोटे से स्कूल से लेकर प्रतिष्ठित संस्थान IIT तक पहुंचकर दूबे ने ये बता दिया कि मन में लगन औऱ हौसला हो तो कोई भी आपको
मंजिल पर पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता फिर चाहे वो गरीबी ही क्यों न हो.... 1990
में IIT
कानपुर के सिविल इंजीनियर डिपार्टमेंट में दाखिला
लेने वाले दूबे ने 1994 में इसे पास कर लिया.... पढ़ने की लगन के चलते उन्होनें
1996 में IIT
वाराणसी से सिविल इंजीनियर में M. Tech की पढ़ाई भी पूरी कर ली.... सत्येंद्र की प्रतिभा को देखते हुए उनके लिए कई
कंपनियों ने अपने दरवाजे उनके लिए खोल दिए थे... वो चाहते तो किसी अच्छे सी
प्राईवेट कंपनी में मोटी तनख्वाह पर नौकरी कर सकते थे.... लेकिन देश निर्माण में
योगदान देने की उनकी चाहत के चलते उन्होनें सरकारी काम को करना ही बेहतर समझा... साल 2000... चार महानगरों को जोड़ने वाली स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना का
निर्माण हुआ... दूबे भी उस समय इसी परियोजना पर बतौर प्रोजेक्ट मैनेजर काम कर रहे
थे... पोडरमा झारखंड में 450 करोड़ की लागत से बन रही 80 किलोमीटर सड़क निर्माण
कार्य को सत्येंद्र देख रहे थे..... लेकिन इस काम में इस्तेमाल किए जा रहे सामान
और गलत ठेकेदारी के चलते बरती जा रही अनियमितता को देखते हुए दूबे ने इसका विरोध
किया.... इसके लिए दूबे ने घटिया सामग्री से बनाई गई उस सड़क को तुड़ावाकर
कॉन्ट्रैक्टर को उसे दोबारा बनाने पर मजबूर किया.... भ्रष्टाचार में लिप्त 4
इंजीनियरों को भी सस्पेंड कराया.... यही नहीं जैसे ही दूबे को परियोजना में घोटाले
की जड़ गहरे तक दिखाई दी तो उन्होनें तुरंत इसकी जानकारी प्रधानमंत्री कार्यालय को
दी.... उन्होनें एक पत्र के जरिए पीएमओ को परियोजना में हो रही घटिया सामग्री की
शिकायत की..... साथ ही उन्होनें कार्यों के आबंटन में फैले भ्रष्टाचार से भी
प्रधानमंत्री को अवगत कराया....
(सत्येंद्र दूबे का प्रधानमंत्री को दिया गया पत्र)
“प्रधानमंत्री महोदय,
मैं अहम तथ्य आपकी जानकारी में लाना चाहता
हूं। एनएचएआई सड़क निर्माण के ठेके देने के लिए अंतरराष्ट्रीय बोली के स्तर की बात
कर रही है ताकि सबसे योग्य ठेका कंपनियों को काम सौंपा जाए, लेकिन सच्चाई इससे अलग
है।
ऐसा देखा जा
रहा है कि बड़े ठेकेदार कई मामलों में ठेके के बड़े प्रोजेक्ट ऐसे छोटे ठेकेदारों
को दे रहे हैं, जो ये बड़े काम करवाने में बिलकुल असमर्थ हैं।
कई मामलों में
तो 40 करोड़ तक के ठेके छोटे ठेकेदारों को सौंप दिए गए और काम शुरु होने के कछ
सप्ताह के भीतर नियमों की अनदेखी करते हुए उन्हें भुगतान भी कर दिया गया।
देश की इतनी
बड़ी योजना हर स्तर पर एक बड़ी लूट का ज़रिया बन चुकी है। मैने अपने स्तर पर इसे रोकने की कोशिश की लेकिन
सफल नहीं रहा। लाचार होकर मैं आपको पत्र लिख रहा हूं। आपसे अनुरोध है कि मेरी
पहचान गुप्त रखी जाए।“
पीएमओ को उनकी
ये चिट्ठी 11 नवंबर 2002 को मिली.... यानि की उनकी हत्या से महज 17 दिन पहले.... दूबे के इस
विरोध के चलते 27 नवंबर 2003 को बदमाशों ने बिहार के गया स्थित सर्किट हाउस के पास
उनको गोली मार दी .....जिससे उनकी मौके पर ही मौत हो गई..... दूबे ने भ्रष्टाचार
को उजागर करने के लिए अपनी जान को भी दांव पर लगा दिया था..... दूबे ने पत्र में
ये भी अपील की कि उनका ये पत्र सार्वजिनक न किया जाए....... इससे ये साफ पता चलता
है कि दूबे को इस बात का पता था कि वो जिन लोगों के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं वो
बहुत ताकतवर हैं और वो उनकी जान भी ले सकते हैं...... लेकिन तमाम
कोशिशों के बावजूद भी उनका ये पत्र सार्वजनिक हो गया... और इसके बाद विभाग की तरफ
से उनको चेतावनी भी मिली की वो ज्याद ईमांदारी न दिखाएं और हद में रहें... इसके
बाद वही हुआ जिसका दूबे को डर था .... गया जिले के रामपुर थाने में उनकी हत्या की
एफआईआर दर्ज हुई थी लेकिन लोगों के विरोध के चलते बिहार सरकार ने सत्येंद्र दुबे
हत्याकांड की जांच सीबीआई से कराने की सिफारिश की.... 8 दिसंबर 2003 को मामला
सीबीआई को सौंप दिया गया... देश की सबसे बड़ी जांच ऐजेंसी CBI ने
लिखा कि सत्येंद्र दूबे की हत्या महज लूटपाट की घटना का नतीजा है.... सीबीआई की
विशेष अदालत ने 27 मार्च, 2010 को मामले में आरोपी तीन
अभियुक्तों पिंकु रविदास, मंटु कुमार और उदय कुमार को दोषी पाते
हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई .... उनकी हत्या के बाद सरकार ने उन्हें आर्थिक
मदद की पेशकश की लेकिन दूबे के पिता ने इसे लेने से मना कर दिया.... बेटे की हत्या का गम शायद एक बाप कभी नहीं भूल सकता .... लेकिन जिस
ईमांदारी की कीमत दूबे ने अपनी जान देकर चुकाई उस ईमांदारी को भी हमेशा याद किया
जाएगा.... आज इस सड़क की हालत परियोजना में हुए घोटालों को उजागर कर रही है.... ये
गढ्ढे सरकार और व्यवस्था को शर्मिंदा करने के लिए काफी हैं....
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