Monday 8 April 2013

अनशन का मर्म?









भारत... जिसे कई शासकों ने अपना गुलाम बनाया... कभी मुस्लमान तो कभी अंग्रेजी हुकूमत ने यहां के लोगों के साथ अन्याय किया...... उनका शोषण किया... लेकिन इस दौर में अन्याय और शोषण से लड़ने के लिए हथियार बनकर उभरा अनशन..... जब गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की.... लाखों की संख्या में लोग इस आंदोलन का हिस्सा बने... और लोगों के इसी हुज़ूम ने पराधीनता के ताबूत में आखिरी कील गाढ़ने का काम किया... तारीख 10 फ़रवरी, 1943... अंग्रेजी हुकूमत के भारतीयों की मांग की ओर ध्यान न देने पर गांधी ने 21 दिन का उपवास शुरू कर दिया.... उपवास ने इस आंदोलन की आग में घी डालने का काम किया.... और एकाएक इस आंदोलन की आग की लपटें इतनी तेज हो गईं कि इसके ताप से अंग्रेजी सियास्तदानों की कुर्सियां तक तपने लगीं... बहरहाल उपवास को 13 दिन हो गए थे.... गांधीजी की हालत बेहद खराब होने लगी लेकिन अंग्रेजों ने इनकी तरफ बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया... इतिहासकार मानते हैं कि अंग्रेज खुद चाहते थे कि गांधीजी मर जाएं.....  खैर इस आंदोलन से मुल्क को आजादी तो नहीं मिल पाई... लेकिन हां गांधी ने यह जरूर साबित कर दिया कि अहिंसा के मार्ग पर चलकर अगर उपवास या अनशन को विरोध के तरीके के तौर पर इस्तेमाल में लाया जाए.... तो जीत निश्चित ही हमारी होगी....




दरअसल गांधी से लेकर इस दौर में अन्ना के आंदोलन को अगर देखें तो इनमें एक बात समान दिखाई देती है .... इन दोनों ने आंदोलन को खड़ा करने और उसमें जन भागीदारी को बढ़ाने के लिए अनशन का सहारा लिया.... या यूं कहें कि इनके आंदोलन की कामयाबी या फिर इसके प्रभाव के पीछे अनशन की शक्ति थी ..... लेकिन अगर सिर्फ गांधी और अन्ना की बात करें तो इनके आंदोलन सामाजिक मुद्दों को केंद्र में रखकर लड़े गए थे... मसलन गांधी ने देश को आजाद कराने के लिए अंग्रेजों से लोहा लिया तो वहीं दूसरी तरफ अन्ना ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोगों को एकजुट किया... इस तरह से देखा जाए तो अन्ना और गांधी के अनशन का आधार राष्ट्रीय था... लेकिन इसके इतर आजादी के बाद कई ऐसे अनशन हुए हैं जिनका राष्ट्रीय स्तर से अलग एक क्षेत्रीय आधार था..




पराधीनता के लंबे अंधकार के बाद जब भारतीय नेताओं ने आजादी का पहला सूरज देखा तो उन्हें कई चुनौतियां और समस्याएं मुंह बाए खड़ी दिखाई दीं... कहीं गरीबी थी तो कहीं बेरोजगारी... कहीं धार्मिक सौहार्द बनाए रखना था तो कहीं राज्यों का पुनर्गठन करना.... सरकार ने कई कोशिशें की... समस्याओं को कुछ हद तक दूर तो कर दिया लेकिन कुछ लोगों को शायद सरकार के फैसले रास नहीं आये और इन्हीं लोगों में से एक थे आंध्र प्रदेश के पोटि श्रीरामुलु.... श्री रामुलु महात्मा गांधी के परम भक्त थे... गांधी के मार्ग पर चलते हुए उन्होनें जीवनभर  सत्य, अहिंसा, देशभक्ति और हरिजन उत्थान के लिये काम किया..... 1952 में भाषा के आधार पर मद्रास प्रेजिडेंसी से आंध्र प्रदेश के अलग होने के मुद्दे पर श्रीरामुलु अनशन पर बैठ गए... 82 दिन तक लगातार बिना खाए वो अनशन पर बैठे रहे लेकिन आखिरकार अनशन के 82वें दिन श्रीरामुलु की मौत हो गई.... श्रीरामुलु की मौत का जिम्मेदार कौन है? यह सवाल अनशन के संदर्भ में बेईमानी लगता है.... बेईमानी इसलिए.... क्योंकि अनशन का मतलब है खुद से अन्न त्यागना न कि किसी के मजबूर करने पर..... अब ऐसे में एक और सवाल खड़ा होता है कि क्या फिर इसे खुदखुशी कहा जाए.... नहीं इसे खुदखुशी नहीं कहा जा सकता क्योंकि खुद की खुशी से नहीं बल्कि किसी मांग के तहत किया गया त्याग है इसलिए इसे त्याग या बलिदान कहा जा सकता है..... बहरहाल श्रीरामुलु का यह बलिदान व्यर्थ नहीं गया.... इनके त्याग का ही यह परिणाम था कि समूचे भारत में भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया....


आजादी के बाद देश में कई मुद्दों को लेकर गहमागहमी बनी हुई थी.... खासकर राज्यों के गठन को लेकर..... आंध्रप्रदेश के अलग राज्य बनने के बाद.... कई और राज्यों के अलग होने की मांग भी तेज़ हो गई....1967 में मास्टर तारा सिंह ने पंजाब सूबा बनाने के लिए 48 दिन तक अनशन किया.... अनशन का तरीका ठीक वैसा ही था जैसा श्रीरामुलु ने का था.... आखिरी दिन तारा सिंह की मौत हो गई थी... तारा सिंह की मौत के बाद पंजाब को 3 अलग भागों में बांट दिया गया.... इसके अलावा भी अलग राज्य के निर्माण को लेकर अनशन हुए.... जिन्होनें राजनीतिक गलियारों में हलचल पैदा कर दी.... और इन्हीं में से एक था अलग तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर अनशन.... तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर सांसद के चेन्द्रशेखर राव ने 2009 में ग्यारह दिनों तक अनशन किया.... इसके अलावा भी कई ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें लेकर अनशन किया गया.... जहां 1974 में छात्र आंदोलन के बाद मोरारजी देसाई ने गुजरात विधानसभा भंग करने और उपचुनाव कराने की मांग को लेकर अनशन शुरू किया... उनके अनशन के दबाव में सरकार झुकी और उनकी मांगे मान ली गई.... तो वहीं पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने 2006 में 25 दिनों तक अनशन किया... दरअसल दीदी का यह अनशन सिंगूर के किसानों की ली गई ज़मीन वापिस कराने की मांग के लिए किया गया था.... नर्मादा बचाओ आंदोलन से जुड़ी समाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटेकर बीस दिनों तक अनशन पर बैठी रही....  मणिपुर की इरोम चानू शर्मिला तो पिछले ग्यारह सालों से अनशन कर रही है...इरोम शर्मिला उत्तर पूर्व भारत से आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर ऐक्ट, 1958 को हटाने की मांग कर रही हैं...इसी तरह स्वामी निगमानंद ने राष्ट्रीय नदी गंगा में खनन रोकने के लिए 19 फरवरी 2011 से अनशन शुरू किया,,,लेकिन सरकार ने उनकी मांगों को तवज्जो नहीं दी... अनशन के 68वें दिन निगमानंद कोमा में चले गए और 12 जून 2011 की देर रात निगमानंद की मौत हो गई.....अब बात अन्ना की....गांधीवादी समाजसेवी अन्ना और अनशन का रिश्ता काफी पुराना रहा है....अब तक पंद्रह बार अनशन कर चुके अन्ना जनलोकपाल बिल की मांग को लेकर इसी साल पांच अप्रैल को दिल्ली के जंतर मंतर पर अनशन पर बैठे....97 घंटे बाद 9 अप्रैल, 2011 को सरकार ने लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए जॉइंट ड्राफ्ट कमिटी बनाने की घोषणा की जिसके बाद ही अन्ना ने अनशन तोड़ा। इसके बाद दिल्ली में बाबा रामदेव के आंदोलन के दौरान पुलिस कार्रवाई के विरोध में 8 जून को अन्ना ने राजघाट पर एक दिन का उपवास रखा। इसके पहले भी अन्ना महाराष्ट्र में करप्शन और आरटीआई के सवाल पर 2003 और 2006 में अनशन कर चुके हैं...उसके बाद बाबा रामदेव ने काले धन के मुद्दे पर 9 दिनों तक अनशन किया। तबियत खराब होने के बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया....सरकार ने उनकी मांगें नहीं मानी.....अन्त में उन्हें खुद अपना अनशन तोड़ना पड़ा....
तो यह थे कुछ ऐसे अनशन जो कई अलग-अलग मुद्दों पर किए गए थे... कुछ सफलता की चोटी पर पहुंचे तो कुछ असफलता की गहरी खाई में.... लेकिन इन सब के बीच एक सवाल अभी भी खड़ा होता है कि क्या अनशन करना विरोध का सार्थक तरीका है....?

भारत में अनशनों की फेहरिस्त बहुत लंबी है .... गांधी ने अनशन को सामाजिक और राजनीतिक रूप दिया.... लेकिन कभी भी उसे ब्लैकमेलिंग का लिबाज़ नहीं पहनाया ... और शायद तभी गांधी के लिए अनशन की परिभाषा अनशन नहीं बल्कि उपवास थी..... और इनका यह उपवास होता तो सामाजिक था लेकिन उसकी तपिश सत्ता तक पहुंचती थी... दरअसल यहीं से शुरू होती है अनशन की वो परंपरा जिसमें अपने हित और अपनी मांगों को अहिंसात्मक रास्ते पर चलकर उठाया जाता है.... गांधी के लिए उपवास का मतलब सिर्फ लोगों को इकट्ठा करना या फिर सत्ता पर जन दबाव ही बनाना नहीं था बल्कि यह तो वो रास्ता था जो उन्हें स्वयं को परिष्कृत करता था या यूं कहें कि यह एक आत्ममंथन की एक प्रक्रिया थी जो भारतीय संस्कारों में पहले से ही मौजूद रही है... और गांधी ने भी उसे वहीं से लिया लेकिन उसके अर्थ को थोड़ा व्यापक कर दिया... शायद समय की यह मांग भी थी... और इस विरासत के बीज को गांधी ने सभी हिंदुस्तानियों के दिलों में बो दियाजिसका यह परिणाम है कि आज के इस आधुनिक और तकनीकी युग में भी लोग अनशन को एक बेहतर हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं... और इन्हें जनसमर्थन भी मिल रहा है.... अन्ना हज़ारे का आंदोलन इस बात की मिसाल रहा है....

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